इस बार दरगाह में नहीं मनेगा जन्माष्टमी उत्सव

इस बार दरगाह में नहीं मनेगा जन्माष्टमी उत्सव

झुंझुनू (राजस्थान)। वैश्विक महामारी कोरोना के चलते देश के प्राय सभी धार्मिक स्थल बंद है। ऐसे में राजस्थान के झुंझुनू जिले में नरहड़ स्थित हाजीब शक्करबार शाह बाबा की दरगाह में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर होने वाला उत्सव इस बार नहीं हो पाएगा। जिला कलेक्टर उमरदीन खान ने बताया की कोरोना संक्रमण रोकने के लिए जिले में सभी धार्मिक स्थलों को जिला प्रशासन ने बंद करवा रखा है। देश में शायद यही एकमात्र ऐसी दरगाह होगी जहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर तीन दिवसीय मेला होता है व धूमधाम से जन्माष्टमी उत्सव मनाया जाता है। दरगाह परिसर में एक गोगा पीर का स्थान बना हुआ है।

राजस्थान में झुंझुनू जिले के नरहड़ कस्बे में स्थित पवित्र हाजीब शक्करबार शाह की दरगाह कौमी एकता की जीवन्त मिशाल हैं। इस दरगाह की सबसे बड़ी विशेषता हैं कि यहां सभी धर्मों के लोगों को अपनी-अपनी धार्मिक पद्धति से पूजा अर्चना करने का अधिकार है। कौमी एकता के प्रतीक के रूप में ही यहां प्राचीन काल से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशाल मेला लगता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर यहां लगने वाले तीन दिवसीय मेले में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, दिल्ली, आंध्रप्रदेश व महाराष्ट्र के लाखों जायरीन शरीक होते हैं। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर लगने वाले इस मेले में हिंदू धर्मावलंबी भी बड़ी तादाद में शिरकत कर अकीदत के फूल भेंट करते हैं। जायरीन यहां हजरत हाजीब की मजार पर चादर, कपड़े, नारियल, मिठाइयां और नकद रुपया भी भेंट करते हैं।

जन्माष्टमी पर नरहड़ में लगने वाला ऐतिहासिक मेला और अष्टमी की रात होने वाला रतजगा सूफी संत हजरत शकरबार शाह की इस दरगाह को देशभर में कौमी एकता की अनूठी मिसाल का अद्भुत आस्था केंद्र बनाता है। जहां हर धर्म-मजहब के लोग हर प्रकार के भेदभाव को भुलाकर बाबा की बारगाह में सजदा करते हैं। दरगाह के खादिम एवं इंतजामिया कमेटी करीब सात सौ वर्षों से अधिक समय से चली आ रही सांप्रदायिक सद्भाव को प्रदर्शित करने वाली इस अनूठी परम्परा को सालाना उर्स की माफिक ही आज भी पूरी शिद्दत से पीढ़ी दर पीढ़ी निभाते चले आ रहे हैं।

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की छठ से शुरू होने वाले इस तीन दिवसीय धार्मिक आयोजन में दूर-दराज से नरहड़ आने वाले हिंदू दरगाह में नवविवाहितों के गठजोड़े की जात एवं बच्चों के जड़ूले उतारते हैं। दरगाह के वयोवृद्ध खादिम हाजी अजीज खान पठान बताते हैं कि यह कहना तो मुश्किल है कि नरहड़ में जन्माष्टमी मेले की परम्परा कब और कैसे शुरू हुई? लेकिन इतना जरूर है कि देश विभाजन एवं उसके बाद और कहीं संप्रदाय, धर्म-मजहब के नाम पर भले ही हालात बने-बिगड़े हों पर नरहड़ ने सदैव हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की मिसाल ही पेश की है। वे बताते हैं कि जन्माष्टमी पर जिस तरह मंदिरों में रात्रि जागरण होते हैं, ठीक उसी प्रकार अष्टमी को पूरी रात दरगाह परिसर में चिड़ावा के प्रख्यात दूलजी राणा परिवार के कलाकार ख्याल (श्रीकृष्ण चरित्र नृत्य नाटिकाओं) की प्रस्तुति देकर रतजगा कर पुरानी परम्परा को आज भी जीवित रखे हुए है। नरहड़ का यह वार्षिक मेला अष्टमी एवं नवमी को पूरे परवान पर रहता है।

शक्करबार शाह अजमेर के सूफी संत ख्वाजा मोइनुदीन चिश्ती के समकालीन सिद्ध पुरुष थे। राजस्थान व हरियाणा मंे तो शक्करबार बाबा को लोक देवता के रूप मंे पूजा जाता है। शादी, विवाह, जन्म, मरण कोई भी कार्य हो, बाबा को अवश्य याद किया जाता हैं। इस क्षेत्र के लोगांे की गाय, भैंसों के बछड़ा जनने पर उसके दूध से जमे दही का प्रसाद पहले दरगाह पर चढ़ाया जाता हैं। उसके बाद ही पशु का दूध घर में इस्तेमाल होता है। हाजिब शक्करबार साहब की दरगाह के परिसर में जाल का एक विशाल पेड़ हैं जिस पर जायरीन अपनी मन्नत के धागे बांधते हैं। मन्नत पूरी होने पर गांवो में रतजगा होता हैं। जिसमें महिलाएं बाबा के बखान के लोकगीत जकड़ी गाती हैं।

दरगाह में बने संदल की मिट्टी को खाके शिफा कहा जाता है, जिसे लोग श्रद्धा से अपने साथ ले जाते। लोगो की मान्यता है कि इस मिट्टी को शरीर पर मलने से पागलपन दूर हो जाता हैं। हजरत के अस्ताने के समीप एक चांदी का दीपक हर वक्त जलता रहता हैं। दरगाह के पीछे एक लम्बा चैड़ा तिबारा हैं, जहां लोग सात दिन की चैकी भरकर वहीं रहते है। नरहड़ दरगाह में कोई सज्जादानसीन नही हैं। यहां के सभी खादिम अपना अपना फर्ज पूरा करते हैं। दरगाह में बाबा के नाम पर देश -विदेश से प्रतिदिन बड़ी संख्या मे खत आते हैं, जिनमे लोग अपनी-अपनी समस्याओं का जिक्र कर बाबा से मदद की अरदास करते हैं। दरगाह कमेटी के पूर्व सदर मास्टर सिराजुल हसन फारुकी बताते थे कि जिस प्रकार ख्वाजा मोइनुदीन चिश्ती को 'सूफियों का बादशाह' कहा गया है। उसी प्रकार शक्करबार शाह 'बागड़ के धणी' के नाम से प्रसिद्ध हैं।

नरहड़ गांव कभी राजपूत राजाओं की राजधानी हुआ करता था। उस समय यहां 52 बाजार थे। पठानों के जमाने यहां के लोदी खां गवर्नर थे। राजपूतों के साथ चले युद्ध में उनकी लगातार पराजय हुई। किंवदंति है कि एक बार हार से थक कर चूर हुए लोदी खां और उनकी सेना मजार के निकट विश्राम कर रही थी। तभी पीर बाबा की दिव्य वाणी हुई कि मेरी मजार तक घोड़े दौड़ाने वाले तुम कैसे विजयी हो सकते हो ? यदि मजार से हटकर लड़ोगे तो तुम्हारी जीत होगी। इसके बाद लोदी खां ने फिर से आक्रमण किया जिसमें उनकी जीत हुई। उसी समय से यहां हजरत शकरबार पीर बाबा का आस्ताना कायम है। उसी समय यहां मजार व दरगाह का निर्माण करवाया गया। जायरीन में प्रवेश करने वाले प्रत्येक जायरीन को यहां तीन दरवाजों से गुजरना पड़ता है। पहला दरवाजा बुलंद दरवाजा है। दूसरा बसंती दरवाजा और तीसरा बगली दरवाजा है। इसके बाद मजार शरीफ और मस्जिद है।

बुलंद दरवाजा 75 फिट ऊंचा और 48 फिट चैड़ा है। मजार का गुंबद चिकनी मिट्टी से बना हुआ है, जिसमें पत्थर नहीं लगाया गया है। कहते है कि इस गुंबद से शक्कर बरसती थी, इसलिए बाबा को शकरबार नाम मिला। नरहड़ के इस जोहड़ में दूसरी तरफ पीर बाबा के साथी दफन है, जिन्हें घरसों वालों का मजार के नाम से जाना जाता है।

इतना महत्वपूर्ण स्थल होने के उपरान्त भी राजस्थान वक्फ बोर्ड की उदासीनता के चलते यहां का समुचित विकास नही हो पाया है। इस कारण यहां आने वाले जायरीनो को परेशानी उठानी पड़ती हैं। झुंझुनू जिला प्रशासन, राजस्थान वक्फ बोर्ड को इस प्रसिद्ध दरगाह परिसर का योजनाबद्ध ढ़ंग से समुचित विकास करवाना चाहिये, ताकि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को असुविधाओं का सामना नहीं करना पड़े।

(रमेश सर्राफ धमोरा-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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