स्वतंत्रता के निहितार्थ

स्वतंत्रता के निहितार्थ
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नई दिल्ली। आज हम अपने देश की स्वतंत्रता की 74वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। मैंने उस सौभाग्यशाली दिन को नहीं देखा था लेकिन पिताजी व अन्य समवय लोगों की बातचीत में कभी-कभी उस दिन का भी उल्लेख होने लगता था। आज की पीढ़ी की बात हम नहीं करते क्योंकि इस पीढ़ी और उससे बड़ी पीढ़ी के लोग भी मोबाइल संस्कृति में इस तरह उलझे रहते हैं कि न तो बड़ों में इस तरह का वार्तालाप होता है और न छोटे बच्चे उनके वार्तालाप को सुनने में कोई रुचि रखते हैं। हमारे समय में बच्चे अक्सर बड़ों की बातें सुना करते थे। तभी तो छिप-छिपकर सुनते थे और बड़ों की नजर पड़ गयी तो डाट कर भगाते थे, चलो, खेलो जाकर। अथवा छोटा-मोटा काम बता देते थे। बछड़ों को चराने, खेतो से चिड़िया भगाने आदि। लेकिन जब आजादी के समय अपने आंदोलन की चर्चा करते तो हम लोगों को देखकर भी नहीं भगाते थे। उन्हें लगता था कि यह शिक्षा प्रद बात है, बच्चों को सीखनी चाहिए।

आज हम इसकी अथवा इसके जैसी बातों की कितनी चर्चा करते हैं। स्वाधीनता आंदोलन के समय की पीढ़ी लगभग समाप्त प्राय है। अब स्वाधीनता के बाद की पीढ़ी है, जिसने भारत पर चीन के हमले को देखा है अथवा उस समय को जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या हो गयी थी। पिताजी के समय की पीढ़ी ने चीनी, सीमेंट के लिए परमिट का समय भी देखा है और स्वतंत्रता की उमंग को भी महसूस किया है, जिससे आज की पीढ़ी को कोई मतलब नहीं। वर्षों पहले कबीर दास जी कह गये, पोथी पढ़-पढ़ जगमुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढे़ं सो पंड़ित होय। यह ढाई अक्षर प्रेम का क्या, हम आज तक याद कर पाये। अगर याद कर लिया होता तो हम एक-दूसरे को ऊंचा-नीचा नहीं समझते। दुराचार जैसी वारदातें नहीं होतीं, कोई भ्रूण हत्या की बात सोचता तक नहीं और कार्यपालिका विधायिका से लेकर न्यायपालिका तक जो भ्रष्टाचार छाया हुआ है, वो भी नहीं होता।

इस प्रकार, जिस तरह हम ढ़ाई अक्षर प्रेम के नहीं कंठस्थ कर पाये, उसी तरह स्वतंत्रता के मायने भी नहीं समझ पाये। हम नारे लगाते रहे स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। हम कहते रहे कि ऐ वतन हम तेरे लिए कुर्बान हैं लेकिन हम जगह-जगह वतन को ही कुर्बान करते रहे। हम कहते रहे कि अब कोई गुलशन न उजड़े माफिया गिरी, गुण्डागर्दी करते करते हम विधान सभा से लेकर संसद तक पहुंच गये। झूठ बोलने की कला में इतना माहिर हो गये कि जनता को एक बार नहीं, कई-कई बार बेवकूफ बना रहे हैं। कभी समाजवाद के नाम पर, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी राम राज के नाम पर। स्वतंत्रता सेनानी की परम्परा में लोकतंत्र सेनानी बन गये। और न जाने कितने सेनानी अभी बनेंगे। मंत्री, विधायक, पूर्व मंत्री कितने ठाठ-बाट से रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट तक पूछ रहा कि इनकी संपत्ति इतनी तेजी से कैसे बढ़ रही है...। सरकार बनाकर मनमानी करने लगे। एक-दूसरे को राष्ट्र द्रोही साबित करने और खुद को राष्ट्रभक्त साबित करने में ही 74 वर्ष बिता दिये। देश को आजादी मिली है, उसके क्या निहितार्थ हैं, यह समझाने की जरूरत नहीं महसूस की। इनमें से ज्यादातर तो वे लोग हैं जिन्होंने गुलामी का दौर नहीं देखा, सत्ता की कुर्सी देखी है।

पिताजी और उनकी हम उम्र के लोग चर्चा करते थे कि कोई अंग्रेज खेमा लगाकर जिस गांव में रहता था, वहां की जनता की शामत ही आ जाती थी। किसान के खेत से हरे चने उखाड़ कर गोरे साहब के घोड़ों को खिलाए जाते। बैजू अहीर बताते कि उनकी गाय-भैंसों का पूरा दूध साहेब बहादुर की सेवा में पहुंच जाता था और गांव की सुंदर लड़कियों और महिलाओं को सख्त पाबंदी रहती कि खबरदार अगर किसी ने बाहर पैर निकाला। इतना सब होते हुए भी देर शाम किसी लड़की की चीख उस खेमे के आस पास सुनाई ही पड़ जाती थी। इस तरह का नर्कमय जीवन था गुलामी का। उसी गुलामी से 15 अगस्त 1947 को मुक्ति मिली थी। देश आजाद हो गया। अंग्रेज बहादुर चले गये। जश्न में देश डूब गया। भारत के विभाजन का दर्द भी लोग भूल गये। बैजू काका भूल गये कि उनका सारा का सारा दूध अंग्रेज बहादुर के खेमे में चला जाता था। रमपतिया उस अमानुषिकता को भी भूल गयी जो उस खौफनाक रात उसने झेली थी। जश्न इसका प्रतीक था कि अब ऐसा कुछ नहीं होगा....।

लेकिन क्या वह सपना पूरा हुआ है? शासन-सत्ता संभाल रहे लोगों ने वही सब कुछ किया। दुराचार के बाद आग लगाकर युवतियों को जलाया जा रहा है। गरीबों की सम्पत्ति पर दबंग कब्जा कर रहे हैं। सरे आम बुलडोजर से गरीबों के घर गिरा दिये जाते हैं। इन दबंगों के खिलाफ बोलने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता। बेटी से दुराचार की शिकायत करने पर पिता को ही उल्टे पुलिस प्रताड़ित करती है और यहां तक कि उसकी मौत भी हो जाती है। ऐसे दबंगों के खिलाफ कौन बोले। जनता तो बेचारी कौओं की अदालत में मुजरिम कोयल की तरह है। संसद और विधान सभाओं में कितने दागदार बैठे हैं, इसके आंकड़े देखे जा सकते हैं।

देश को आजादी मिली। यह बहुत बड़ी नेमत है। आजादी इसलिए नहीं मिली कि हम कुछ भी बोलें, कुछ भी करें। हमें भारत विरोधी नारे लगाने की आजादी नहीं हैं। हमें तोड़ फोड़ करने, किसी को सताने की आजादी नहीं है लेकिन अपनी समस्या को दूर करने की आजादी तो होनी ही चाहिए। अभी हाल ही के एक उदाहरण से हम अपनी बात को समाप्त कर देंगे क्योंकि यह प्रकरण बहुत विस्तार मांगता है। हमारी कालोनी में वरिष्ठ पत्रकार अनवर हुसैन रहते हैं। उनके पड़ोस में भी वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनके घर में दो बड़े पेड़ लगे थे। ये पेड़ 25-26 साल में इतने बड़े हो गये कि उनको काटना-छाटना मुश्किल हो गया। पेड़ों की जड़ों ने उफनती नदियों की तरह जहां चाहा, वहां जगह बना ली। नतीजा यह कि पड़ोस के कई घरों की दीवारें चटकने लगीं और फर्श के टाईल टूटने लगे। भुक्त भोगी लोगों ने कालोनी में बनी समिति से गुहार की। समिति के प्रयास से पेड़ काटे गये। इसके बाद कानून के रखवालों को कानून याद आया। स्थानीय थाने से दो पुलिस कर्मी आ गये और कानून बताया कि हरा पेड़ क्यों काटा गया? पूरी कालोनी और समिति जब एक जुट हो गयी तो पुलिस कर्मी वापस चले गये अब कोई बताए कि क्या हमें इतनी भी आजादी नहीं मिली है कि अपने घर की सुरक्षा में पेड़ कटवा सकें?

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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