सबको तारने वाले बाबा विश्वनाथ को भी तारणहार की प्रतीक्षा

सबको तारने वाले बाबा विश्वनाथ को भी तारणहार की प्रतीक्षा

नई दिल्ली। लगभग पांच सौ वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण का शुभारंभ हो गया। यह राष्ट्रीय स्वाभिमान व सनातन गौरव की वापिसी की ओर कदम कहा जा रहा है। वैसे तो 9 नवम्बर 1889 को श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर का शिलान्यास हो चुका था। भूमि पूजन या आधारशिला के बगैर भी मन्दिर निर्माण प्रारम्भ हो सकता था। परन्तु इस पूजन के पीछे महत्वपूर्ण कारण गर्भगृह का पूजन बताया जाता है। न्यायालय व इसके बाहर भी कहा जाता था कि मन्दिर किसी अन्य जगह बना लो। अनेक बेहूदे प्रश्न पूछे गए। प्रत्युत्तर में कहा जाता था कि मन्दिर गर्भगृह पर ही बनेगा। सनातन धर्म में प्रत्येक परम्परा रहस्य समेटे हुए थे। सनातन मान्यता है कि इसी स्थली पर श्री हरि भगवान विष्णु चतुर्भज रूप में प्रकट हुए। माता कौशल्या के आग्रह पर बाल रूप में उनकी गोद में आए। इस प्राकट्य स्थली का जागरण व भारत के वर्तमान राजा द्वारा क्षमा याचना आवश्यक थी।

अयोध्या के वैभव की पुनर्प्रतिष्ठा की ओर कदम बढ़ने के बाद काशी विश्वनाथ के ह्रदय पर लगे कलंक को हटाने की मांग तेज हो गई है । सर्वविदित है कि भगवान राम शिव को अत्यधिक प्रिय हैं, श्रीराम भी उन्हें सम्मान देते हैं। लंका विजय के पूर्व शिवलिंग की प्रतिष्ठा व शिवाराधना भगवान श्रीराम ने की थी। आगामी तीन वर्षों में जब राम जन्मभूमि मन्दिर बन जाएगा, इसके पूर्व काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में विद्यमान अवैध ज्ञानवापी मस्जिद को हटाने के लिए सन्तों ने मांग की है।

स्मरण रहे द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर प्राचीन काल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है। अतएव आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। जिसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। शिवपुराण के अनुसार काशी में देवाधिदेव विश्वनाथजी का पूजन-अर्चन सर्व पापनाशक, अनंत अभ्युदयकारक, संसाररूपी दावाग्नि से दग्ध जीवरूपी वृक्ष के लिए अमृत तथा भवसागर में पड़े प्राणियों के लिए मोक्षदायक माना जाता है।

मान्यता है कि वाराणसी में मनुष्य के देहावसान पर स्वयं महादेव उसे मुक्तिदायक तारक मंत्र ऊँ राम रामाय नमः का उपदेश करते हैं। पौराणिक मान्यता है कि काशी में लगभग 511 शिवालय प्रतिष्ठित थे। इनमें से 12 स्वयंभू शिवलिंग, 46 देवताओं द्वारा, 47 ऋषियों द्वारा, 7 ग्रहों द्वारा, 40 गणों द्वारा तथा 294 अन्य श्रेष्ठ शिवभक्तों द्वारा स्थापित किए गए हैं।

काशी या वाराणसी भगवान शिव की राजधानी मानी जाती है इसलिए अत्यंत महिमामयी भी है। अविमुक्त क्षेत्र, गौरीमुख, त्रिकंटक विराजित, महाश्मशान तथा आनंद वन इत्यादि नामों से सुशोभित काशी गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों वाली नगरी है। काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग दो भागों में है। दाहिने भाग में शक्ति के रूप में मां भगवती विराजमान हैं। दूसरी ओर भगवान शिव वाम रूप (सुंदर) रूप में विराजमान हैं। इसीलिए काशी को मुक्ति क्षेत्र कहा जाता है। देवी भगवती के दाहिनी ओर विराजमान होने से मुक्ति का मार्ग केवल काशी में ही खुलता है। यहां मनुष्य को मुक्ति मिलती है और दोबारा गर्भधारण नहीं करना होता है। भगवान शिव खुद यहां तारक मंत्र देकर लोगों को तारते हैं। अकाल मृत्यु से मरा मनुष्य बिना शिव आराधना के मुक्ति नहीं पा सकता। बताया जाता है कि ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था।

इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गोरी द्वारा विध्वंस किया गया। पुनः इस मंदिर का निर्माण किया गया। जिसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुनरपि, सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इतिहासकारों के अनुसार काशी विश्वनाथ के भव्य मंदिर को तोड़ने के लिए सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।

डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब दान हारावली में उल्लेख किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। बताया जाता है कि यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। तत्कालीन लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित मासीदे आलमगिरी में इस ध्वंस का वर्णन किया गया है। औरंगजेब के आदेश पर इस पवित्र स्थल पर मंदिर नेस्तनाबूद कर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था। अतएव मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। मन्दिर का निर्माण वर्ष 1780 में भाद्रपदमास कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पूर्ण किया गया था।

बताया जाता है कि वर्तमान मन्दिर का स्वरूप और परिसर आज मूल रूप से वैसा ही है जैसा कि महारानी अहिल्याबाई द्वारा वर्ष 1780 ई. में बनवाया गया होगा। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह ने वर्ष 1853 में 1000 किलोग्राम शुद्ध सोने से मन्दिर के शिखरों को स्वर्ण मण्डित किया गया, जिसका स्वरुप आज भी मौजूद है।

बताया जाता है कि सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंघ्डप का क्षेत्र है जिसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, परन्तु अद्यावधि यह संभव नहीं हो पाया है।

इतिहास की पुस्तकों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का उल्लेख व उसके विध्वंस की घटनाओं का वर्णन किया गया है। मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब विविध कल्प तीर्थ में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे।

1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक तीर्थ चिंतामणि में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही ज्योतिर्लिंग है। कैसा आश्चर्य है कि सबको तारने वाले बाबा विश्वनाथ को भी तारणहार की प्रतीक्षा है।

(मानवेन्द्र नाथ पंकज-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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