आध्यात्मिक भारत के व्याख्याता महर्षि अरविंद

आध्यात्मिक भारत के व्याख्याता महर्षि अरविंद
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नई दिल्ली। पन्द्रह अगस्त भारत की स्वतंत्रता के लिए याद किया जाता है। इस दिवस से जहां एक ओर विभाजन के फलस्वरूप लाखों लोगों के विस्थापन, हत्या, महिलाओं के साथ पाश्विकता की कटु यादें जुड़ी हुई हैं, वहीं दूसरी ओर भारत की स्वतंत्रता में आध्यात्मिकता की आहुति देने वाले महापुरुष महर्षि अरविंद घोष की स्मृति भी जुड़ी हैं।

भारत के महान योगी एवं दार्शनिक अरविन्द घोष या अरविन्द (जन्म: 15 अगस्त, 1872, मृत्यु: 5 दिसम्बर, 1950) 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में जन्मे थे। इन्होंने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया, परन्तु बाद में आप योगी बन गये और पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है और उनकी साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं। अरविंद कवि और गुरु तो थे ही प्रख्यात वक्ता, शिक्षक व पत्रकार भी थे। आपके पिता एक डाक्टर थे।

अरविन्द के पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर उच्च सरकारी पद दिलाना चाहते थे, अतएव मात्र ७ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया। अरविंद घोष की माँ स्वर्णलता देवी धर्मपरायण महिला थीं, परन्तु अंग्रेजियत में रचे-बसे डॉ. कृष्णधन घोष उनको भी हिन्दू संस्कारों से दूर रखकर अंग्रेजियत अपनाने पर विवश रखते थे। अरविंद ने केवल 18 वर्ष की आयु में ही आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक एवं इटैलियन भाषाओं में भी निपुणता प्राप्त की थी। देशभक्ति से प्रेरित इस युवा ने जानबूझ कर घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया और राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली।

अरविन्द की प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे। अतः उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। बड़ौदा में ये प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि कार्य योग्यता पूर्वक करते रहे और इस दौरान हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया। 1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा कालेज के फ्रेंच अध्यापक और उपाचार्य रहने तक रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी। अरविंद घोष निजी रुपये-पैसे का हिसाब नहीं रखते थे परन्तु राजस्व विभाग में कार्य करते समय उन्होंने जो विश्व की प्रथम आर्थिक विकास योजना बनायी उसका कार्यान्वयन करके बड़ौदा राज्य देशी रियासतों में अन्यतम बन गया था। महाराजा मुम्बई की वार्षिक औद्योगिक प्रदर्शनी के उद्घाटन हेतु आमन्त्रित किये जाने लगे थे। अरविन्द घोष के अनुज वारिन्द्र घोष सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। 1901 में भूपाल चन्द्र बोस की सुपुत्री मृणालिनी देवी से अरविंद घोष का विवाह हुआ।

1905 में लार्ड कर्जन के बंग-भंग की घोषणा पर सारा देश तिलमिला उठा। बंगाल में इसके विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष ने इसमे सक्रिय रूप से भाग लिया। नेशनल लाॅ कॉलेज की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। मात्र ७५ रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया। पैसे की जरूरत होने के बावजूद उन्होंने कठिनाई का मार्ग चुना। अरविन्द कलकत्ता आये तो राजा सुबोध मलिक की अट्टालिका में ठहराये गये। पर जन-साधारण को मिलने में संकोच होता था। अतरू वे सभी को विस्मित करते हुए 19ध्8 छक्कू खानसामा गली में आ गये। उन्होंने किशोरगंज (वर्तमान में बंगलादेश में) में स्वदेशी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। अब वे केवल धोती, कुर्ता और चादर ही पहनते थे। उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय विद्यालय से भी अलग होकर अग्निवर्षी पत्रिका वन्दे मातरम् (पत्रिका) का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों और कार्यों से अत्यधिक आतंकित थी। अतः 2 मई 1908 को चालीस युवकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे अलीपुर षडयन्त्र केस के नाम से जानते है। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया। अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। इस षड़यन्त्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था, उसकी एक दिन जेल में ही हत्या कर दी गयी। घोष के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की थी। उन्होने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बन्धित अदालती फैसले 6 मई 1909 को जनता के सामने आये। 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी। जहाँ अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ जो इतिहास में उत्तरपाड़ा अभिभाषण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने अपने इस अभिभाषण में धर्म एवं राष्ट्र विषयक कारावास- अनुभूति का विशद विवेचन करते हुए कहा था। जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया। जेल में अरविन्द का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। अरविन्द जब अलीपुर जेल में थे तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए, इस सभा में उन्होंने रहदयोद्घटन किया। श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वह क्रांतिकारी आंदोलन से योग और अध्यात्म की ओर मुड़ गए। कारागार से बाहर आकर उन्होंने देखा एक वर्ष में पूरा परिदृश्य ही बदल गया था। जेल से ही उन्हें श्रीकृष्ण के सन्देश प्राप्त होने की अनुभूति होने लगी। जो अंग्रेज सरकार उन्हें मृत्युदंड देना चाहती थी, वह उनका बल भी बांका न कर सकी। उनके क्रांति दीक्षित शिष्य, अग्निवर्षक विचारों से प्रभावित प्रशंसक, सभी चाहते थे कि किसी भी प्रकार वे जेल से बाहर आवें। कारागार से मुक्त होते ही उन्होंने अपने को भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में सौंप दिया। जब तक उन्हें संकेत नहीं मिलता, तब तक वे कोई भी कदम उठाते नहीं थे। यह ऐसी घटना थी कि जिस प्रकार अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण रास्ता दिखाते थे, उसी प्रकार अरविंद को दिव्यानुभूति हो रही थी। जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। जबकि अंग्रेज सरकार उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई थी। किसी प्रकार वे चकमा देकर नाव से पांडिचेरी चले गए। उत्तरपाड़ा का उद्घोष सनातन धर्म, राष्ट्रीयता, भारत की स्वतंत्रता, भारत की आध्यात्मिक शक्ति का गौरव गान है। 111 वर्ष बीतने के बाद भी अरविंद घोष का यह भाषण चिर प्रासंगिक है। भारतीय इतिहास की यह युगांतरकारी घटना है।

(मानवेन्द्र नाथ पंकज-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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