यूपी में विपक्ष की धुरी हैं अखिलेश यादव

यूपी में विपक्ष की धुरी हैं अखिलेश यादव
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लखनऊ : यह सच है कि इस समय राजनीति की न तो पुरवा चल रही है और न पछुआ, सिर्फ दक्षिण से थपेड़े आ रहे हैं। चुनावी जीत हार से इतर वहां जिस तरह से नकद रूपये सीज किये जा रहे हैं और माफियाओं के जंग में खुलकर उतरने से राजनीति की शुचिता पर प्रश्न चिह्न लग रहा है, उससे चिन्ता तो उत्पन्न होती ही है। कर्नाटक में इस समय राजनीति की सरगर्मी सबसे ज्यादा है लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि बाकी सब जगह पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ है। राजनीतिक समर के लिए रणनीतियां सभी राज्यों में बन रही हैं। देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश 2019 की तैयारियां अभी से कर रहा है। पूर्व के चुनाव 2014 में भाजपा ने प्रदेश में सफलता का जो शिखर छुआ था, उस तक इस बार भी पहुंच जाए तो यही उसकी बड़ी उपलब्धि होगी। इस बार विपक्ष चौकन्ना है। इसका नमूना पिछले दो लोकसभा उपचुनाव में देखा जा चुका है जब समाजवादी पार्टी और बसपा ने मिलकर भाजपा से दोनों प्रतिष्ठा पूर्ण सीटें छीन लीं। कांग्रेस उस गठबंधन में नहीं शामिल थी लेकिन सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं कि कांग्रेस से हमारे मधुर संबंध बने रहेंगें। बसपा प्रमुख सुश्री मायावती राज्यसभा चुनाव में थोड़ा विचलित जरूर हुई थीं लेकिन विधान परिषद के चुनाव में सपा ने बसपा प्रत्याशी भीमराव अम्बेडकर को विजय दिलाकर उसकी भरपायी कर दी है। बसपा प्रमुख सुश्री मायावती कांग्रेस से खफा हैं लेकिन विपक्ष की एकता की धुरी अखिलेश यादव हैं। इस एकता में अजित सिंह की पार्टी रालोद को भी शामिल करना है जो कैराना में अपना प्रत्याशी भी उतार रहे हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सपा-बसपा ने गठबंधन की जो नींव रखी है, उसपर मजबूत भवन बनाने में कई चुनौतियां सामने खड़ी हैं। इस गठबंधन में कांग्रेस भी शामिल होगी और रालोद के साथ कई छोटी-छोटी पार्टियां भी जुड़ेंगी। गठबंधन धर्म निभाने के लिए इन सभी दलों में त्याग और सहयोग की भावना होना अति आवश्यक है। अभी तक सपा और बसपा के सामने सीटों के बँटवारे का जो फार्मूला सामने आया है, उसके अनुसार 2014 में लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों ने जिस तरह से प्रदर्शन किया, उसको ही आधार बनाया जाएगा। इस आधार के अनुसार 2014 में जिन सीटों पर जो प्रत्याशी दूसरे स्थान पर था, उसे ही उम्मीदवार बनाया जाएगा और जहां से जो विजयी हुआ था, वहां उसे टिकट दिया जाएगा। कांग्रेस को दो सीटों पर जीत मिली थी, इसलिए उसकी दो सीटें तो पक्की हैं। इसके अलावा भी कांग्रेस की प्राथमिकता में लगभग 20 सीटें हैं। इनमें कई सीटें ऐसी है जिनपर सपा और बसपा दोनों को एतराज हो सकता है। कांग्रेस ने अपनी प्राथमिकता में लखनऊ, बाराबंकी, सुल्तानपुर, मथुरा, कैराना, बागपत, सहारनपुर कानपुर, रायबरेली और अमेठी को रखा है तो इस पर गठबंधन में दल तैयार नहीं होंगे। बागपत अजित सिंह की पुश्तैनी सीट है और फर्रूखाबाद पर समाजवादी पार्टी का ज्यादा प्रभाव है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है कि उनका गठबंधन चाहे जिससे रहे लेकिन कांग्रेस से उनके मधुर संबंध बने रहेंगे। कांग्रेस से गठबंधन पर मुलायम सिंह यादव खुश नहीं थे लेकिन बसपा से गठबंधन पर वे बहुत खुश हैं और इसका इजहार भी सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं।
सपा और बसपा के गठबंधन का नतीजा गोरखपुर और फूलपुर के संसदीय उपचुनाव में अकल्पनीय सफलता दिला चुका है। इससे सपा और बसपा के नेता ही नहीं कार्यकर्ता तक गदगद नजर आते हैं। इस गठबंधन को लेकर भाजपा का चिंतित होना भी सपा-बसपा के उत्साह को बढ़ा रहा है। भाजपा की चिंता को उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह भी नहीं छिपा पाये और लखनऊ दौरे पर आने के समय उन्होंने कह दिया कि जो पार्टियां 23 साल से एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देखना चाहती थी, वे एक हो गयीं। इसलिए अखिलेश यादव इस गठबंधन को पुख्ता करने में लगे हैं, भले ही उनके पिता कांग्रेस को लेकर हिचकते हैं। सपा को बसपा से ही ज्यादा दिक्कत होगी, भले ही 2014 में बसपा को प्रदेश से एक भी सांसद नहीं मिल पाया लेकिन कई स्थानों पर उसमें प्रत्याशी ही दूसरे स्थान पर रहे थे। इसलिए बसपा अपने लिये ज्यादा सीटें मांग सकती है जबकि कांग्रेस को अखिलेश यादव समझा लेंगे। बसपा का रूख कैराना लोकसभा उपचुनाव को लेकर भी दिखाई दिया है। कैराना में 28 मई को मतदान होना है। यहां पर सपा और रालोद अपने प्रत्याशी उतार रहे हैं। बसपा न तो किसी का खुल कर समर्थन कर रही है और न विरोध। सपा और बसपा के सीटों के फार्मूले को देखा जाए तो बसपा 34 और सपा 31 स्थानों पर दूसरे स्थान पर रही थी। सपा ने पांच सांसद सीटें जीती थीं। इस प्रकार सपा के लिए भी 36 सीटें पक्की हो गयीं। इस प्रकार दोनों पार्टियों के खाते में ही 70 सीटें चली जाएंगी।
इससे लगता है कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को महागठबंधन बनाने के लिए स्वयं त्याग तो करना ही पड़ेगा, साथ ही बसपा को भी गठबंधन धर्म के नाम पर त्याग करने के लिए तैयार करना होगा। यह काम अखिलेश यादव के लिए आसान नहीं है और पार्टी अंदरूनी रूप से जनसम्पर्क में भी लगी है। अभी हाल में ही सपा की छात्रसभा ने, दो कदम अन्मदाता के साथ पदयात्रा की थी। समाजवादी छात्रसभा के प्रदेश अध्यक्ष दिग्विजय सिंह देव के नेतृत्व में गन्ना किसानों की समस्याओं का लेकर पदयात्रा की। यह यात्रा उन क्षेत्रों में की गयी जहां गन्ना की उपज ज्यादा होती है। खेती किसानी के बारे में जिन्हें जानकारी है उन्हें पता होगा कि इस समय किसान अब गन्ना किसी भी तरह से बेचना चाहता है क्योंकि धूप में गन्ना सूख रहा है। गन्ना खरीद के लिए सेंटरो पर किसानों को बहुत परेशानी होती है। चीनी मिलों ने कई जगह क्रय केन्द्र बना रखे हैं जहां किसानों को घटतौली का शिकार होना पड़ता है। गोण्डा के एक गन्ना किसान ने गतदिनों बताया कि उसका पूरा गन्ना ही तौलने के बाद हजम करने का प्रयास किया गया था लेकिन काफी दौड़ भाग के बाद उसको अपना गन्ना मिला। उस किसान ने बताया कि 24 हजार का गन्ना हड़प लिया गया था। इस तरह की दिक्कतें कई किसानों के साथ आती हैं और पूर्व सांसद मुख्तार अन्सारी के नेतृत्व में सपा के नेता और कार्यकर्ता गन्ना किसानों से संवाद बनाये हैं। इसी तरह गेहूं क्रय केन्द्रों पर भी किसानों के दुख दर्द सुने जाएंगे।
इस प्रकार समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गठबंधन के साथ ही अपने संगठन को भी सक्रिय कर रखा है। बसपा के कार्यकर्ताओं से साफ-साफ कहा गया है कि अब सपा कार्यकर्ता उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेंगे। अखिलेश यादव को बात-बात पर नसीहत देने वाले मुलायम सिंह भी अपने बेटे की नेतृत्व क्षमता का लोहा मानने लगे हैं और कहते हैं कि उनकी पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है। अखिलेश यादव की परीक्षा अब कैराना में होनी है क्योंकि रालोद वहां अपना प्रत्याशी उतारने को तैयार है कांग्रेस उसका समर्थन करने को। सुश्री मायावती को इन दोनों पर भरोसा नहीं है, फिर भी महागठबंधन के लिए कांग्रेस और रालोद भी जरूरी हैं। (अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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