बुढ़ापे में भी कायम रहे होशो हवाश

बुढ़ापे में भी कायम रहे होशो हवाश

जीवन चक्र का चौथा पड़ाव अर्थात बुढ़ापा कई तरह से दुखदाई होता है लेकिन यह नियति है जिसे रोका भी नहीं जा सकता। इस उम्र तक पहुंचते ही इन्द्रियां शिथिल पड़ने लगती हैं और चलना-फिरना दूभर हो जाता है। मस्तिष्क की गतिविधि भी गड़बड़ा जाती है। चिकित्सकों के अनुसार इसका एक कारण आक्सीडेटिव स्ट्रेस है जिसके चलते याददाश्त कमजोर होने लगती है। भूलने की यह आदत कभी-कभी शर्मिन्दा करती है तो कभी परिवार जनों के गुस्सा का कारण बनती है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बायो केमिस्ट्री विभाग के वैज्ञानिक प्रो. एसआई रिजवी ने बुढ़ापे पर बहुत शोध किया है और एक ऐसे कम्पाउंड की खोज भी की है जिससे वृद्धावस्था में भी मस्तिष्क सक्रिय रह सकता है। हम बुढ़ापे को तो नहीं रोक सकते लेकिन उस अवस्था में कम से कम हमारा दिभाग इतना काम कर सके कि हम अपने परिवार के लिए और खुद के लिए परेशानी न पैदा करें। प्रो. रिजवी का शोध अमेरिकी रिसर्च जनरल लाइफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है।
वैज्ञानिक प्रो. एसआई रिजवी और उनकी टीम ने लम्बे समय तक एंटी एंजिंग अर्थात बुढ़ापा विरोधी खोज पर काम किया है और उनका प्रयास अभी जारी है। प्रो. रिजवी और उनकी टीम को फिसेटिन नामक एक ऐसा कम्पाउंड मिला है जो ढलती उम्र के साथ दिमागी क्रियाओं अर्थात मस्तिष्क में आने वाली शिथिलता को काफी हद तक रोक सकता है। प्रो. रिजवी का दावा है कि यह कंपाउंड मस्तिष्क की शिथिलता को दुरुस्त कर पहले जैसा कर देता है। प्रो0 रिजवी कहते हैं कि आक्सीडेटिव स्ट्रेस नामक प्रक्रिया मनुष्यों और पशुओं में उम्र के साथ आने वाले बदलावों के लिए जिम्मेदार होती है। इससे शरीर के अंग-प्रत्यंग उम्र बढ़ने के साथ शिथिल होते रहते हैं। आक्सीडेटिव स्ट्रेस जीवनदायी आक्सीजन का वह जहरीला स्वरूप है जो शरीर को नुकसान पहुचता है। मनुष्यों के शरीर में सबसे ज्यादा आक्सीजन का इस्तेमाल मस्तिष्क में ही होता है जहां से पूरे शरीर का नियंत्रण रहता है। यही कारण है कि आक्सीडेटिव स्ट्रेस का सबसे ज्यादा असर भी दिमाग पर ही पड़ता है। ढलती उम्र के साथ दिमाग की कोशिकाएं मरने लगती हैं अर्थात दिमाग की सक्रियता समाप्त होने लगती है।
प्रो. रिजवी और उनकी टीम ने जब इस मामले में शोध किया तो पाया कि एंजिग अर्थात बुढ़ापा कुछ बायोमार्कर होते हैं जैसे कि प्रो. आक्सीडेंटए एंटी आक्सीडेंट, माइटोकाॅड्रियल फंक्शन, एक्सप्रेशन आफ जीन्स तथा एपाक्टाॅसिस सेल डेथ आदि। इन सभी पर गहराई से अध्ययन किया तो पाया कि फिसेटिन नामक कंपाउंड ढलती उम्र के साथ मस्तिष्क को होने वाले नुकसान को रोकता है। प्रो. रिजवी और उनकी टीम ने इस प्रयोग को चूहों पर करके आजमाया भी है। प्रो. रिजवी की टीम ने अलग-अलग उम्र के चूहों पर फिसेटिन का प्रयोग किया। इस प्रयोग में इस बात की पुष्टि हुई कि जिन उम्र दराज चूहों को फिसेटिन दिया गया था उनका दिमाग उसी उम्र के चूहों के दिमाग से कहीं ज्यादा सक्रिय था अर्थात ढलती उम्र के चूहों के दिमाग में जो नुकसान होता है वह फिसेटिन वाले चूहों में नहीं हुआ। प्रो. रिजवी के इस शोध को अमेरिका की एक विज्ञान पर आधारित पत्रिका अमेरिकी रिसर्च जर्नल लाइफ साइंसेज ने प्रकाशित किया है तो वहां के वैज्ञानिकों को भी इस खोज में कुछ दम नजर आया होगा। अभी इस पर कई स्तर के प्रयोग होंगे और तब कहीं इसे मनुष्यों के उपचार के लिए मान्यता मिलेगी।
तब क्या हमें जो ढलती उम्र के लोग हो गये हैं उन्हें और प्रतीक्षा करनी होगी और ठोकरे खानी पड़ेंगी? इसके लिए भी प्रो. रिजवी और उनकी टीम ने एक बेहतर और सुगम रास्ता निकाला है। यह रास्ता तो हम आज से ही अपना सकते हैं क्योंकि इसके लिए न तो बाजार में कोई दवा खरीदनी है और न डाक्टर के पास जाना है बल्कि हमें अपने खाने-पीने में नियमित रूप से कुछ फलों और सब्जियों का प्रयोग करना होगा। आप कहेंगे कि यह तो बहुत आसान है तो हम उन फलों और सब्जियों के बारे में भी बता दें जिनके लिए प्रो. रिजवी और उनकी टीम कहती है कि इनमें फिसेटिन की मात्रा भरपूर होती है। इनमें शामिल है सेब, स्ट्रावेरी और खीरा जैसे फल तथा प्याज जैसी सब्जी। इन फलों और सब्जियों के बारे में हम जानकारी तो पहले से रखते हैं कि इनका सेवन सेहत के लिए बहुत अच्छा होता है। सेब के बारे में तो पहले से एक कहावत सुनते आये हैं-एक सेब रोज खाओ, डाक्टर को दूर भगाओ। वन ऐपल ए डे, डाक्टर्स अवे। इसी प्रकार प्याज को भी हम घरेलू दवा मानते हैं। खीरा, स्ट्रावेरी में से स्ट्रावेरी जरूर थोड़ा महंगा फल है लेकिन अगर बुढ़ापे की बीमारी से बचाती है तो महंगा फल भी खरीद कर खाया जा सकता है। खीरा तो आसानी से मिल जाता है।
हमारे शरीर में मस्तिष्क ही एक ऐसा अंग है जिसे पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता है। शरीर वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारे मस्तिष्क में अरबों की संख्या में न्यूरांस मौजूद होते हैं जो एक जाल की तरह एक दूसरे में गुत्थम गुत्था रहते हैं। इसका अनुमान हम कम्प्यूटर के तारों से लगा सकते हैं लेकिन कम्प्यूटर के तार सीमित संख्या में हैं। मस्तिष्क के ये न्यूरांस विद्युत और रसायनिक संकेतों के जरिए ही सक्रिय रहते हैं और एक दूसरे से सम्पर्क करते हैं। इस प्रकार मस्तिष्क के बारे में हमें अभी बहुत कम जानकारी हो सकी है। सामान्य रूप से हम अपने दिमाग का पांच प्रतिशत ही प्रयोग कर पाते हैं। इसके अलावा जिन्हें हम मेधावी कहते हैं अथवा विज्ञान के क्षेत्र में जिन्होंने नाम कमाया है वे भी ज्यादा से ज्यादा 10 फीसद ही मस्तिष्क का प्रयोग कर पाये होंगे। इस प्रकार 90 फीसद से ज्यादा अपने मस्तिष्क का प्रयोग हम आज भी नहीं कर सके हैं। हमारे पौराणिक युग के पूर्वजों ने भले ही इससे ज्यादा मस्तिष्क का प्रयोग किया हो क्योंकि ज्योतिष आदि की गणना उनका विलक्षण कार्य रहा है। पुष्पक विमान और समुद्र में पुल बनाने आदि की बातें भी ऐसे ही दिमाग की उपज मानी जा सकती है। ब्रह्मास्त्र कैसा होता होगा इसकी हम कल्पना ही कर सकते हैं। कुछ लोगों को इन सब बातों पर विश्वास नहीं है लेकिन मस्तिष्क के बहुत कम उपयोग कर पाने की बात तो उन्हें भी स्वीकार करनी पड़ेगी।
साधारण से बहुत जटिल चीजों को समझने के लिए हम अपने दिमाग का ही प्रयोग करते हैं तो सवाल उठता है कि हमारे विभाग में ऐसा क्या है जो निमिष मात्र से हमारे शरीर से हरकत करवा देता है। आंखों के सामने कोई चीज आयी नहीं कि हाथ तुरंत उठ जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तकनीक दिमाग के भीतर मौजूद असंख्य कड़ियां अर्थात न्यूरांस के जाल की वजह से ही संभव है। न्यूरांस को समझने के लिए भी निरंतर शोध किये जा रहे हैं। इन न्यूरांस की गतिविधियों को हम जितना ज्यादा समझ लेंगे, हमारे मस्तिष्क के बारे में उतनी ही जानकारी मिलेगी। फिलहाल हम प्रो. रिजवी और उनकी टीम के फिसेटिन पर भी उम्मीद कर सकते हैं और इसके लिए उन्होंने फल और सब्जियों का जो सुझाव दिया है उस पर अमल करने में कोई परेशानी भी नहीं है। इसके बाद कोई दवा विकसित होगी और उसके नियमित सेवन से वृद्धजनों को अपनी मस्तिष्क संबंधित गतिविधियों को संवारने में मदद मिलेगी जिससे वे अनावश्यक समस्याओं से खुद भी बचेंगे और परिजनों को भी बचाएंगे।

epmty
epmty
Top