मायावती का संघर्षमय जीवन एवं बहुजन समाज मूवमेंट का सफरनामा

मायावती का संघर्षमय जीवन एवं बहुजन समाज मूवमेंट का सफरनामा
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मायावती उसी साल पैदा हुई, जिस साल बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का परिनिर्वाण हुआ. 15 जनवरी 1956 को मायावती ने इस दुनिया में आंखें खोली तो तकरीबन 11 महीने बाद 6 दिसंबर को बाबासाहेब ने आंखें मूंद ली. जैसे निश्चिंत हो गए हो कि चलो कोई जिम्मेदारी संभालने वाला आ गया. मायावती 15 जनवरी, 2013 को अपने जुझारु और कर्मठ जीवन के 56 साल पूरे कर रही हैं. इस बीच वह कुमारी मायावती से 'बहन जी' बन चुकी हैं. आज के वक्त में बहुजन समाज पार्टी और कुमारी मायावती एक-दूसरे के पूरक हैं. बहुजन समाज पार्टी के पिछले 28 वर्षो के सफ़र पर नज़र डाले तो ये जानने में ज्यादा समय नहीं लगेगा की बसपा के संस्थापक कांशीराम की तरह ही मायावती पार्टी की उन्नति की प्रमुख वजह रही है.

सन 1977 में जब दिल्ली के करोलबाग में रहकर कांशीराम अपने मिशन को आगे बढ़ा रहे थे, तब उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने बहुत ही प्रभावित किया. लॉ फैकल्टी की 21 वर्षीय छात्रा अनुसूचित जाति के अधिकारों व सम्मान की लड़ाई की सोच वाली एक ऐसी युवा थी, जिससे कांशीराम के आन्दोलन को धार मिली. ये युवा छात्रा ही मायावती थी. तब मायावती सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी करती थीं. अपनी आत्मकथा में मायावती ने लिखा है, 'मेरे विचार और लक्ष्य समझते हुए कांशीराम जी ने मुझे समझाया कि 'तुम्हारे अंदर कलक्टर बनने की काबिलियत है और नेता बनने की भी, लेकिन यदि तुम नेता बनीं तो ऐसे कई कलक्टर तुम्हारे पीछे फाइलें लिए खड़े रहेंगे. उनकी मदद से तुम दबे-कुचले शोषित समाज का अधिक उत्थान कर सकती हो.' मायावती स्वीकार करती हैं कि मान्यवर कांशीराम ने उन्हें एक सपना दिया, पथ प्रदर्शन किया.

मायावती की जीवनी लिखने वाले अजॉय बोस लिखतें है की 'कांशीराम, मायावती के साथ बहुत अच्छा भावनात्मक जुड़ाव रखते थे. कांशीराम का गुस्सैल स्वभाव, खरी-खरी भाषा व जरूरत पड़ने पर हाथ के इस्तेमाल पर मायावती की तर्कपूर्ण खरी-खरी बातें भारी पड़ती थी. समान आक्रामक स्वभाव वाले दलित चेतना के लिए समर्पित इन दोनों लोगो के काम का अंदाज़ जुदा होते हुए भी एक दुसरे का पूरक था, जहां कांशीराम लोगो से घुलना मिलना, राजनैतिक संघर्ष और गपशप में यकीन रखते थे वही मायावती अंतर्मुखी रहते हुए राजनैतिक बहसों को समय की बर्बादी मानती थीं. मायावती का ये अंदाज़ अब भी बरकरार है. वे आज भी चुपचाप अपना काम करती हैं. राजनैतिक अटकलबाजियों में ना तो वो खुद शामिल होती हैं ना ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को शामिल होने देती हैं.
अस्सी के दशक में जब वे आम अध्यापिका थीं तब भी वे अपनी शख्सियत के मुताबिक़ पूछा करती थी "अगर हम हरिजन की औलाद है तो क्या गांधी शैतान की औलाद थे." अपने इसी तेज तर्रारी व खरी तेजाबी जुबान से ,जब उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था को मनुवादी कह कह कर हिंदी क्षेत्रों में लताड़ना शुरू किया तो वर्षो से दबे हुए दलित समाज ने उन्हें अपनी आवाज़ और अपने लिए युद्धरत एक सिपाही को मायावती के रूप में पाया. कांग्रेस में वोटबैंक की मानिंद सिमटे रहने वाले दलित अधिकारी नेता अब आज़ाद महसूस करने लगे और अस्सी के दशक का 'हरिजन' कब राजनैतिक व्यक्तित्व को प्राप्त कर 'दलित' बन गया ये पता ही नहीं चला.
मायावती को समझने के लिए उनकी आत्मकथा 'मेरा संघर्षमय जीवन एवं बहुजन समाज मूवमेंट का सफरनामा' के पन्ने पलटने होंगे. हर चेतना संपन्न दलित की तरह मायावती में भी दलित आंदोलन की पहली समझ बाबा साहब डा. अंबेडकर की जीवनी और उनकी किताबें पढ़कर आई. इन किताबों से मायावती का पहला परिचय उनके पिता ने कराया. मायावती अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, 'तब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी. एक दिन मैने पिताजी से पूछा कि अगर मैं भी डा.अंबेडकर जैसे काम करूं तो क्या वे मेरी भी पुण्यतिथि बाबा साहब की तरह ही मनाएंगे?'
मायावती के विरोधी भले ही उनको लेकर मनगढ़ंत कहानियां गढ़ते फिरें और उन पर तानाशाही का आरोप लगाते रहें, मायावती का राजनीतिक जीवन इतना आसान नहीं रहा है. मायावती पहले बामसेफ और फिर डीएस फोर में सक्रिय हुईं. दोनों संगठनों की स्थापना क्रमश: 1978 और 1981 में हुई थी. उस समय इन संगठनों से मायावती का जुड़ाव यह साबित करता है कि सत्ता उनका साध्य नहीं थी. वह खुद तय किए उद्देश्य के लिए लड़ रही थीं. यह वह समय था जब दलित आंदोलन का कोई भविष्य नहीं दिखता था, कोई मानने को तैयार नहीं था कि बहुजन आंदोलन कभी सफल भी होगा. मायावती आज जिस मुकाम पर हैं, वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ा संघर्ष किया है. निजी जिंदगी में परिवार के स्तर पर भी उन्होंने बहुत तकलीफें सही. 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनने पर ही मायावती सक्रिय राजनीति में उतरीं, लेकिन पिता उनके राजनीति में जाने के विरोधी थे. पिता ने कहा कि अगर कांशीराम का साथ नहीं छोड़ा तो उन्हें परिवार से अलग कर दिया जाएगा. अपनी आत्मकथा में मायावती लिखती हैं, 'पिता जानते थे लड़की घर छोड़कर नहीं जा सकती. उन्होंने मुझ पर दबाव बनाया, लेकिन मैंने उनकी नहीं सुनी.' इसके बाद मायावती ने घर छोड़ दिया. उनका साथ दिया बड़े भाई ने. पास में था तो बस सात साल की नौकरी से बचा कुछ पैसा. वह कहती हैं कि 'मैं भाई के साथ अलग कमरा लेकर रहती थी. कमरा कांशीराम जी ने दिलवाया था. जल्दी ही लोगों ने दुष्प्रचार शुरू कर दिया.' खुद कांशीराम ने भी लिखा है कि राजनीति में प्रवेश करते ही मायावती की बेहिसाब मुश्किलें शुरू हो गईं.'
अपनी पहली राजनीतिक जीत के लिए उन्हें कई साल का इंतजार करना पड़ा. 1984 में बसपा के गठन के बाद से ही मायावती ने कैराना से चुनावी सफ़र शुरू किया. इस मुकाबले में जीत तो कांग्रेस प्रत्याशी की हुई, पर मायावती ने भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई. इस चुनाव में मायावती ने 44,445 वोटों के साथ तीसरा स्थान प्राप्त किया. फिर आया 1985 बिजनौर का उपचुनाव. इस चुनाव में वह 61,504 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहीं. मायावती को चाहने वालों की तादाद बढ़ रही थी और साथ ही वोटों की संख्या भी. 1987 में हरिद्वार सीट से 1,25,399 वोटों के साथ वह दूसरे स्थान पर रही. 1988 के महत्वपूर्ण इलाहाबाद की लोकसभा सीट के उपचुनाव में वी पी सिंह व कांग्रेस के अनिल शास्त्री के एतिहासिक मुकाबले में तीसरी बड़ी दावेदारी कांशीराम के नेतृत्व में इसी बहुजन समाज पार्टी ने पेश किया. इतने प्रयासों के बाद सन् 1989 में बिजनौर से 1,83,189 वोटों के साथ वे पहली बार संसद के लिए चुन ली गई.

1984 में 'बीएसपी की क्या पहचान, नीला झंडा-हाथी निशान' व बाबा तेरा मिशन अधूरा मायावती करेंगी पूरा, के नारों के साथ बसपा ने 1993 में सपा (पिछड़े मुस्लिम) व बसपा (अति पीछड़े व दलित) गठबंधन कर, 'मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम' का नारा दिया. लगा भाजपा के पूरे राम मंदिर आंदोलन को धुल चटा सवर्णों के धर्म व राजनैतिक आंदोलन की रीढ़ ही तोड़ दी गई है. कांशीराम की तरह वे उत्तर प्रदेश से बाहर की नहीं थी. वे यूपी की बेटी थी, वे दलित की बेटी थी. मायावती की इसी ज़मीनी पकड़ और आक्रामकता के चलते 1989 में बसपा महज दो लोकसभा सीटो पर 9.93 फीसदी मत से बढ़कर 1999 आते आते 14 सीट और 22.8 फीसदी मतों पर पहुंच गई.

1995 में भाजपा के साथ हाथ मिला दलित की ये बेटी पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बन गई. इस देश के अलावा देश के बाहर के लोगों के लिए भी एक अचंभे की बात थी. यह वह वक्त था, जब मायावती विश्व के फलक पर अचानक एक कद्दावर नेता के रूप में उभरी थी. उनकी इन्हीं उपलब्धियों की बदौलत प्रतिष्ठित 'न्यूज वीक' पत्रिका उन्हें दुनिया की आठ सर्वाधिक ताकतवर महिलाओं में शुमार कर चुकी हैं. मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद उन्होंने बहुजन नायकों और बहुजन हितों पर खासा ध्यान दिया. मायावती ने अम्बेडकर ग्राम योजना लाकर अनुसूचित जाति बहुल गांव में सरकारी निवेश को बढ़ा दिया. थानों में दलित अधिकारियों की नियुक्ति कर दलित उत्पीडन पर रोक लगा दी व दलित महापुरुषों के नाम पर नए जिले घोषित कर दलितों को मोह लिया. तब से ही दलितों के साथ ही पछड़े वर्ग में भी मायावती का खासा प्रभाव रहा. सी एस डी एस की रिपोर्ट को माने तो सन 1996 में बसपा को 27% कुर्मी, 24.7% कोईरी वोट मिले. समाजवादी पार्टी तो मायावती और बसपा के बढ़ते कदम से इतनी बौखला गई कि उसके लोगों ने मायावती पर हमला तक कर दिया. मुलायम की पार्टी के कुछ लोगों द्वारा गेस्ट हॉउस में मायावती के ऊपर किये गए जानलेवा हमले में सवर्ण नेताओं खासकर ब्रह्मदत्त द्विवेदी द्वारा बचाई गई मायावती ने सन् 2005 में बसपा में ही सवर्ण नेतृत्व उभारना शुरू कर दिया. इसको वकील से यूपी के महाधिवक्ता बनाये गए सतीश चन्द्र मिश्र ने मूर्त रूप दे डाला. मायावती ने सवर्ण और ब्राह्मण नेताओं को ज्यादा महत्त्व देना ,कांशीराम द्वारा बनाया गया 15 बनाम 85 फीसदी का बहुजन सामाजिक समीकरण को 25% दलित, 9% ब्राह्मण+20% अति पिछड़ों का समीकरण कर दिया. कांग्रेस के जाते ही जो ब्राह्मण नेतृत्व विहीन हो गए थे वे सतीशचंद्र के नेतृत्व में 2007 में बड़ी संख्या में बसपा से जुड़े, यहां तक कि 42 ब्राह्मण जीतकर बसपा की पहली बार बनी पूर्ण बहुमत सरकार का हिस्सा बने. यह सब मायावती की बेहतरीन राजनीतिक सूझ-बूझ का ही नतीजा था. उनके विरोधी भले ही कुछ भी कहें, लेकिन ताज एक्सप्रेस वे और बुद्ध इंटरनेशनल सर्किल मायावती के मुख्यमंत्रित्वकाल की ऐसी उपलब्धि है, जिसके बारे में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी सोच भी नहीं सकते थे. वरिष्ठ लेखिका अरुणधति राय भी विरोधियों के इसी कुप्रचार का शिकार थीं. लेकिन नोएडा में बुद्ध इंटरनेशनल सर्किल पर देखने के बाद अपने एक संस्मरण में उन्होंने मायावती की तारीफ के पुल बांधे थे.

प्रशासक के रूप में 'बहन जी' का तेवर हमेशा उग्र रहा है और उन्होंने समझौता नहीं किया. उत्तर प्रदेश के एक बड़े किसान नेता महेन्द्रसिंह टिकैत द्वारा एक जन सभा में जिसमें, अजीत सिह भी मौजूद थे, मायावती को गालियां दी गई. बहन जी ने टिकैत की गिरफ्तारी का आदेश दिया. टिकैत बिजनौर से मजबूत आधार वाले अपने गांव सिसौली (मुजफ्फर नगर) लौट आया. गांव की घेराबन्दी कर दी गई. पानी बिजली काट दी गई. अंत में बड़बोला टिकैत अपनी औकात में आ गया. उसने गिड़गिडा़ते हुए मुख्यमंत्री मायावती से माफी मांगी और उसको गिरफ्तार कर लिया गया. वहीं मुलायम राज को पटखनी देकर तब सत्ता में पहुंची मायावती ने यूपी के बड़े-बड़े गुंडों को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया. कई अंडरग्राउंड हो गए . सख्त प्रशासन के लिए विपक्षी भी उनका लोहा मानते हैं. चाहे किसी जाति या धर्म का व्यक्ति हो, प्रदेश की आम जनता ने बसपा शासन में हमेशा सुरक्षित महसूस किया. खासकर महिलाओं ने एक महिला मुख्यमंत्री के प्रसाशन को काफी पसंद किया. 'चढ़ गुंडो की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर' जैसे नारे एक वक्त उत्तर प्रदेश की फिजाओं में खूब गूंजे थे. मायावती ने हमेशा से अपनी कड़क छवि के अनुरूप ही काम किया. बहुजन नायकों के सम्मान को लेकर भी मायावती हमेशा सचेत रहीं. यह तब देखने को मिला जब 2007 में उन्होंने लखनऊ के अंबेडकर स्मारक के रख रखाव में कोताही बरतने के कारण कुछ अधिकारियों को निलंबित कर दिया. मायावती का पूरा ध्यान दलितों के हित साधने में रहा. उनके द्वारा बैकलाग की भर्तियों पर बार-बार पूछताछ जारी रही. दलित कोटे को पूरा करना और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं के लोगों की तैनाती इस बात को दर्शाती भी रही.

अपने राजनीतिक गुरु, सचेतक और बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी के गुजरने के बाद मायावती को झटका लगा. लेकिन तब तक वे परिपक्व हो चुकी थीं. एक वक्त ऐसा भी आया जब कई बड़े नामों ने बसपा का साथ छोड़ दिया. इनमें बसपा को कई साल देने वाले सलेमपुर के पूर्व सांसद बब्बन राजभर हो, बलिया से ही कांशीराम के साथी पूर्व सांसद बलिहारी बाबू हो, इलाहबाद से इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष कालीचरण सोनकर हो या फिर आजमगढ़ के सगड़ी के नेता मल्लिक मसूद तमाम लोग पार्टी से अलग हो गए. इसमें से कई आज कांग्रेस की शोभा बढ़ा रहे है. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी रहें तो 'बहन जी' के पीछे साए की तरह खड़े रहें. इनमें कांशीराम के सेक्रेट्री अम्बेथ राजन व पार्टी के बिहार प्रभारी गांधी आज़ाद जैसे प्रतिबद्ध दलित कार्यकर्ता रहे हैं. अम्बेथ राजन का संगठन कांशीराम व अन्य दलितों को दिल्ली में मूलभूत सुविधाएं देता था. आज भी वे उसी प्रकार की सेवाएं बसपा का खजांची बन कर दे रहे हैं.
मायावती के जीवन संघर्ष पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के प्रो. विवेक कुमार ने पिछले दिनों अपने एक लेख में लिखा था, 'यह विडंबना है कि लोग आज मायावती के गहने देखते हैं, उनका लंबा संघर्ष और एक-एक कार्यकर्ता तक जाने की मेहनत नहीं देखते. वे यह जानना ही नहीं चाहते कि संगठन खड़ा करने के लिए मायावती कितना पैदल चलीं, कितने दिन-रात उन्होंने दलित बस्तियों में काटे. मीडिया इस तथ्य से आंखें मूंदे है. जाति और मजहब की बेड़ियां तोड़ते हुए मायावती ने अपनी पकड़ समाज के हर वर्ग में बनाई है. वह उत्तर प्रदेश की पहली ऐसी नेता हैं, जिन्होंने नौकरशाहों को बताया कि वे मालिक नहीं, जनसेवक हैं. अब सर्वजन का नारा देकर उन्होंने बहुजन के मन में अपना पहला दलित प्रधानमंत्री देखने की इच्छा बढ़ा दी है. दलित आंदोलन और समाज अब मायावती में अपना चेहरा देख रहा है. भारतीय लोकतंत्र को समाज की सबसे पिछली कतार से निकली एक बहुजन महिला की उपलब्धियों पर गर्व होना चाहिए l

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