प्रश्न स्कूलों में प्रार्थना का

प्रश्न स्कूलों में प्रार्थना का

सवाल अर्थात प्रश्न करना हमारी भारतीय संस्कृति के आधार रहे हैं। इसी से चिंतन को बल मिला। हमारे आसपास, प्रकृति में जो भी हम देखते रहे उसके बारे में हमने सवाल किया। कभी खुद उसका उत्तर खोजा कभी दूसरों ने उसे बताया। हमारा पौराणिक साहित्य इन्हीं प्रश्न और उत्तरों की देन है। इसलिए सवाल करने की यह परम्परा बनी रहनी चाहिए। अभी ताजा सवाल सुप्रीम कोर्ट ने हमारे देश की केन्द्रीय सरकार से पूछा है। यह सवाल है केन्द्रीय स्कूल के सभी छात्रों के लिए हिन्दू धर्म पर आधारित प्रार्थना अनिवार्य करने के बारे में क्योंकि कुछ विद्वानों ने यह सवाल उठाया है कि इस तरह की प्रार्थना से बच्चे में वैज्ञानिक सोच कमजोर पड़ जाती है और वह अपनी समस्या का स्वयं समाधान न करके ईश्वर परआधारित हो जाता है। इन विद्वानों के इस तर्क को भी हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इसका जवाब मांगा क्योंकि सरकार ने सभी केन्द्रीय विद्यालयांे में इसे अनिवार्य किया है। इस सवाल का जवाब सरकार क्या देती है यह हम नहीं बता सकते लेकिन वस्तुतः यह जवाब हम सभी को भी देना चाहिए। सरकार भी तो आखिर हम-आप से मिलकर बनी है तो हमारे विचार इस मामले में कैसे हैं इस पर स्वस्थ बहस होनी चाहिए। परिचर्चा और संगोष्ठियां भी करायी जानी चाहिए।

देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएफ नरिमन और जस्टिस नवीन सिन्हा की पीठ ने मध्य प्रदेश निवासी विनायक शाह की याचिका को विचारार्थ स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार को नोटिस जारी किया है। विनायक शाह ने अपनी याचिका में कहा है कि देश के सभी केन्द्रीय विद्यालयों में प्रार्थना लागू की जा रही है। प्रार्थना की प्रथा बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में बाधा पैदा कर रही है क्योंकि ईश्वर व धार्मिक आस्था को ज्यादा प्राथमिकता दी जा रही है। श्री विनायक शाह का मानना है कि इस प्रकार की प्रार्थना करने से छात्रों के सोचने-समझने की प्रक्रिया में प्रार्थना अर्थात ईश्वर के प्रति आस्था को बैठाया जा रहा है। इसका परिणाम यह होगा कि रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाली बाधाआंे के प्रति व्यावहारिक तरीके विकसित करने की बजाय वे राहत के लिए ईश्वर की ओर मुखातिब होंगे। याचिका में यह बात तो सभी छात्र-छात्राओं के बारे में कही गयी है लेकिन इसके साथ धार्मिक आधार पर भी एक सवाल उठाया गया है। हमारे देश में विभिन्न धर्म-सम्प्रदाय, जाति-वर्ग एक साथ हिल-मिलकर रहते हैं और संविधान के तहत सभी धर्म-सम्प्रदायों को अपने-अपने कर्मकाण्ड करने की भी स्वतंत्रता मिली हुई है। इसलिए केन्द्रीय विद्यालयों में हिन्दू धर्म से इतर जो बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनके लिए
हिन्दू धर्म की प्रार्थना असहज हो जाएगी। याचिका में कहा गया है कि चंूकि केन्द्रीय विद्यालयों में प्रार्थना अनिवार्य की जा रही है तो अल्पसंख्यक समुदाय जैसे मुस्लिम, ईसाई और ऐसे लोग जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं जिन्हें नास्तिक कहा जाता है उनके बच्चों और उनके अभिभावकांे को इससे मानसिक कष्ट होगा और यह उनके लिए संवैधानिक दृष्टि से भी अनुचित कहा जाएगा।
याचिका के मुताबिक देश भर में पिछले 50 सालों से 1125 केन्द्रीय विद्यालयों की प्रार्थना सभाओं में हिन्दी और संस्कृत की प्रार्थनाएं होती रही हैं। इन प्रार्थनाओं में कई ऋचाएं (वेदों के श्लोक) शामिल हैं जिनमें एकता एवं संगठित होने का संदेश है। यहां पर एक सवाल प्रासंगिक तो है लेकिन ज्यादा बहस करना इस पर ठीक नहीं है। सवाल है कि 1964 से ये प्रार्थनाएं हो रही थीं तब आपत्ति क्यों नहीं हुई और अब केन्द्र के साथ 19 राज्यों में भाजपा की सरकार है तब इस प्रकार के सवाल ज्यादा उठाये जाने लगे हैं इसमें भाजपा और संघ के कुछ नेताओं का भी योगदान है जो चाहते हैं कि भारत में विभिन्न
धर्मों-पंथों को मानने वाले जो लोग रह रहे हैं वे अपने को ढोल-नगाड़े के साथ कहें कि हम भी हिन्दू हैं। इससे कुछ लोगांे का आपत्ति करना स्वाभाविक है। देश की इस नब्ज को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सबसे पहले समझा था। उन्होंने हिन्दुओं के एक भजन को देश के माहौल में ढालकर प्रार्थना सभा में गाने की प्रथा शुरू की थी। गांधी जी का प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तैने कहिए जो पीर पराई जानै णे...था लेकिन उन्होंने-
रघुपति राघव राजा राम।
पतित पावन सीता राम।।
सीता राम सीता राम।
भज प्यारे तू सीताराम।।
को भी थोड़ा बदलाव करके प्रस्तुत किया था। गांधी जी ने इसमें ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान, रात मंे निंदिया दिन तो काम, कभी भजोगे प्रभु का नाम, करते रहिए अपना काम, लेते रहिए हरि का नाम, रघुपति राघव राजाराज, पतित पावन सीताराम। गांधी जी ने इस प्रकार से अपने कर्तव्य के पालन से प्रार्थना को जोड़ा था।
हम लोगों में भी जो पचास के दशक को पार कर चुके हैं उन्होंने प्राइमरी स्कूल में यह प्रार्थना की होगी-
वह शक्ति हमें दो दया निधे।
कर्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर सेवा, पर उपकार में हम।
जग जीवन सफल बना जावें।।
हम दीन दुखी निबलों, विकलों।
के सेवक बन संताप हरें।
जो हैं अटके, भूले-भटके।
उनको तारें, खुद तर जावें।
छल, दंभ, द्वैष पाखंड, झूठ।
अन्याय से निशिदिन दूर रहें।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना।
शुचि प्रेम सुधा रस बरसावें।।
निज आन-बान मर्यादा का।
प्रभु ध्यान रहे, अभिमान रहे।
जिस देश-जाति में जन्म लिया।
बलिदान उसी पर हो जावें।।
यह कितनी सुंदर और प्रेरक प्रार्थना थी। उसे उस समय हम नहीं समझ पाये थे लेकिन बड़ी लय के साथ गाते थे। बाद में इसका अर्थ मालूम पड़ा और आज मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उस पीढ़ी के लोग इस प्रार्थना से काफी प्रेरित हुए। अपने माता-पिता और बड़ों का सम्मान करना सीखा। छल-कपट और पाखंड से काफी बचकर रहे हैं। इस तरह की प्रार्थनाओं पर किसी को आपत्ति भी नहीं रही और न आज हो सकती है। इसीलिए कोर्ट ने पूछा है कि स्कूलों में सर्वधर्म प्रार्थना क्यों नहीं हो सकती? क्या हिन्दी और संस्कृत में इस समय करायी जा रही प्रार्थना से किसी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा मिल रहा है। याचिका कर्ता ने कहा है कि केवल केन्द्रीय विद्यालयों में ही नहीं अपितु कई राज्यों के सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में भी कक्षाओं से पहले हर सुबह प्रार्थना होती है। सभी धर्म और सम्प्रदाय के बच्चों को ये प्रार्थनाएं गानी होती हैं। प्रार्थना में संस्कृत शब्दों को लेकर भी आपत्ति की गयी है और कहा गया कि प्रार्थनाओं में शिक्षकों को सामूहिक जिम्मेदारी होती है कि वे हर बच्चे की उपस्थिति सुनिश्चित करें और इस बात का ध्यान रखें कि हर छात्र हाथ जोड़कर प्रार्थना करे, ध्यान लगाये। ऐसा न करने पर छात्रों को दंडित भी किया जाता है।
शिक्षा एक तपस्या है इसमें दो राय नहीं हो सकतीं और अध्ययन से पूर्व प्रार्थना की जाए, इससे शिक्षा ग्रहण करने में सुविधा होगी। बच्चों में साम्प्रदायिक भावना शुरू से मजबूत हो जो बाद में कट्टरवादिता में बदल जाए यह भी ठीक नहीं है। इसलिए स्कूलों में प्रार्थना सामाजिक कल्याण का भाव पैदा करने वाली होनी चाहिए। संस्कृत के श्लोकों में जो शक्ति छिपी है उससे भी इंकार नहीं किया सकता, फिर भी देश के लोकतंत्र का ध्यान रखना होगा।

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