भीमा गाँव की हिंसा भारत को बाँटने की साजिश

भीमा गाँव की हिंसा भारत को बाँटने की साजिश

हिंदुस्तान से अंग्रेज विदा हो गए ,लेकिन फूट डालो और राज करो का बीज जो उन्होंने बोया था वह आज पूरे भारत में बिखर कर विशाल वटवृक्ष बन गया, जिसकी वजह से हमारा समाज जाति, धर्म, भाषा, नस्लवाद और दलित, अगडे, पिछड़े, हिंदुत्व और इस्लाम में विभाजित है। बाकी बची रिक्तता को राजनीति और नेताओं की गंदी सोच ने पूरा कर दिया है। महाराष्ट्र के पुणे के नजदीक कोरेगांव भीमा में दलितों पर हुए कथित हिंसा और हमले की बात उसी बोए हुए बीज का अंकुरण है। एक तरफ हम तरक्की और विकास की बात कर रहे हैं। भारत को हम सवा सौ अरब वाला देश कह रहे हैं। न्यू इंडिया, डिजिटल और स्किल इंडिया की बात कर रहे हैं जबकि उसी देश में अपनों के खिलाफ जीत का जश्न मनाया जा रहा है। फिर हम किस भारत के विकास और उसमें निहित सामाजिक समरसता की बात करते हैं। यहाँ देश पीछे है, पहली कतार में जाति, धर्म, भाषा और सम्प्रदाय है। अंग्रेज अच्छी तरह जानते थे कि भारत में जाति और धर्म का मसला इतना ज्वलनशील है कि सिर्फ एक तीली भारत को आजीवन जलाती रहेगी।
अनावश्यक तरीके से भड़की इस जातीय हिंसा में करोड़ों स्वाहा हो गया। मुम्बई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेन और मेट्रो भी प्रभावित हुईं। काफी संख्या में बसों को आग के हवाले कर दिया गया। आर्थिक नगरी मुम्बई थम गई। आखिर यह सब क्यों हुआ। इसके असली गुनहगार कौन है ? किसने यह साजिश रची। उसका काला चेहरा बेनकाब होना चाहिए। काफी हद तक फडणवीस सरकार भी जिम्मेदार है। पुणे में हुईं घटना के बाद वक्त रहते अगर कदम उठाए गए होते तो आग इतनी न फैलती।
अहम सवाल है कि कोरेगांव भीमा में यह आयोजन पिछले 200 सालों से होता चला आ रहा है, तब कभी इस तरह की हिंसा नहीं भड़की , फिर इस बार आखिर ऐसा क्या हुआ कि विजय दिवस की बरसी हिंसा और आगजनी की बलि चढ़ गई। एक व्यक्ति की जहाँ मौत हो गई वहीं कई लोग घायल हुए। महाराष्ट्र के 15 से अधिक जिले इसकी चपेट में आ गए। इस हिंसा से जहाँ सामाजिक तानेबाने की दीवार ध्वस्त हुईं वहीं देश को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। हिंसा की असली वजह क्या रही। दलितों की तरफ से यह शौर्य दिवस तो 200 सालों से मनाया जाता है फिर इसका विरोध क्यों और कहाँ से शुरू हुआ। यह विवाद हिंदुत्व, आरएसएस, दक्षिण और वामपंथ की कैसे जद में आया। विजय दिवस के पीछे का छुपा इतिहास क्या है। क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई। कई सवाल हैं जो आम देशवासी के जेहन में उठ खड़े हुए हैं। इतिहास की माने तो 1 जनवरी 1818 में ब्रिटिश की ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच, कोरेगाँव भीमा में जंग लड़ी गई थी। इस लड़ाई में अंग्रेजों और आठ सौ महारों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के 28 हजार सैनिकों को पराजित कर दिया था। महार सैनिक यानी दलित ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़े थे और कहा जाता है कि इसी युद्ध के बाद पेशवा राज का अंत हो गया। उस दौर में देश में ऊंच-नीच और अस्पृश्यता का विकास अधिक था। अगड़ी जातियां दलितों को अछूत मानती थीं । महाराष्ट्र में मराठा अगड़ी जाति से है जबकि महार समुदाय दलित वर्ग से है। अंग्रेजों ने इसका फायदा उठाया। हिंदुओं को बाँटने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी ने दलितों में महार के नाम पर एक अलग से रेजीमेंट बनाई जिसमें दलितों ने अंग्रेजों का साथ दिया और मराठों को पराजित कर दिया। बाद में अंग्रेजों ने युध्द में शहीद हुए लोगों के सम्मान में भीमा नदी के किनारे बसे कोरेगाँव में एक स्मारक बनवाया। तभी से दलित उस जीत को विजय दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं जबकि कुछ हिंदूवादी संगठन इसका विरोध करते हैं। आरोप हैं कि पहली जनवरी को भीमा गाँव में जमा हो रहे दलितों को रोका गया, जिसके बाद एक व्यक्ति की मौत हो गयी और पूरे महाराष्ट्र में हिंसा भड़क गई। उस आग में घी का काम डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के पोते और एक्टिविस्ट प्रकाश आंबेडकर के महाराष्ट्र बंद के आह्वान ने भी किया। इस पूरे घटनाक्रम से एक बात साफ जाहिर होती हैं कि यह पूर्व नियोजित थी, हालांकि यह बात जाँच के बाद साफ होगी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। मुख्यमंत्री ने कहा है कि पुणे में कोरेगांव हिंसा की न्यायिक जांच कराई जाएगी। राज्य सरकार ने सीसी फुटेज के आधार पर जाँच कराने की बात कहीं है ।
यह बात सच है कि वहाँ लाखों की संख्या में दलित समुदाय के लोग जमा होते हैं । कभी किसी तरह की बात सामने नहीँ आयी। लेकिन इस बार के आयोजन में कई दलित संगठनों के अलावा जिग्नेश मेवानी औए उमर खालिद और वामपंथ के लोग भी वहाँ मौजूद थे। सवाल यह भी है इस तरह के विवादित छवि के लोगों को आमंत्रित क्यों किया गया था। दूसरी तरफ उमर खालिद और जिग्नेश मेवानी किस तरह के नेता हैं, यह पूरा देश जानता है। जिग्नेश ने प्रधानमंत्री मोदी पर विधायक बनने के बाद किस तरह का बयान दिया यह जग जाहिर है। वही जेएनयू के छात्रनेता उमर खालिद भी मौजूद थे उन पर भी भड़काऊ बयान देने का आरोप है। जेएनयू में जिस तरह भारत विरोधी नारे लगे उसके केंद्र में यहीं उमर खालिद थे जो देश के बंटवारे की बात करता हो, उसे इस तरह के आयोजन में आमंत्रित कर महार या दलित संगठन के लोग समाज को क्या संदेश देना चाहते थे। उनसे कौन सी उम्मीद रखी गई थी।
हालांकि इस हिंसा के पीछे हिंदू एकता अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे व शिवराज प्रतिष्ठान के संभाजी भिड़े का भी नाम आ रहा है। दोनों संगठनों ने भीमा-कोरेगांव युद्ध में अंग्रेजों की जीत को शौर्य दिवस के रूप में मनाने का विरोध किया था।
उधर, इस पर संसद से सड़क तक राजनीति गरमा गई है। काँग्रेस और राहुल गाँधी ने जहाँ भाजपा और आरएसएस पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया है। वहीं भाजपा ने इसके लिए काँग्रेस की फूट डालो और राज करो नीति का परिणाम बताया है। उनका आरोप है कि संघ और भाजपा दलितों को समाज में सबसे नीचे पायदान पर रखना चाहती है। ऊना, रोहित वेमुला और भीमा-कोरेगांव की हिंसा दलितों के प्रतिरोध के उदाहरण हैं। जब बात दलितों से जुड़ी हो फिर मायावती कब पीछे रह सकती हैं। उन्होंने हिंसा में भाजपा का हाथ बताते हुए सारा दोष महाराष्ट्र की भाजपा सरकार पर मढ़ दिया जबकि आरएसएस ने इस घटना को दुखद और दर्दनाक बताया हैं, लेकिन इस पर राजनीति खूब हो रही है।
सवाल उभर कर आता है कि आजाद भारत में गुलामी के प्रतीक इस तरह के शौर्य दिवस मनाने की जरूरत क्या है? 200 साल पहले का भारत पूरी तरह बदल चुका है। फिर उस घाव को शौर्य दिवस के रूप में हरा करने की बात समझ में नहीं आती। वह दौर था जब दलितों के साथ अत्याचार होते रहे थे, समाज की ऊँची जातियां उनसे भेदभाव करती थीं। लेकिन आज का वक्त बदल गया है। अंग्रेजी हुकूमत का दौर नहीं रहा। देश विकास की तरफ बढ़ रहा है। उस स्थिति में अगर हम जाति और धर्म की बात करते रहेंगे तो यह बात अच्छी नहीं। संसद में दलित उत्पीड़न का राग अलापने वालों को यह नहीँ दिखता कि आधुनिक भारत का दलित समाज इतना मजबूत हो चला है कि वह अपनी ताकत से महाराष्ट्र सरकार को हिला देता है। हिंसा और आगजनी की बदौलत सारी व्यवस्था ठप कर देता है। करोड़ों की सम्पत्ति आग की भेंट चढ़ा देता है। यह बात सच है कि दलितों के साथ कुछ घटनाएं सभ्य समाज में निंदनीय हैं लेकिन यह भी सच है कि वह आजादी भी किस काम की, जहां शौर्य दिवस से पूरा देश जलने लगे। देश की सरकार को इस तरह के जातिवादी, धार्मिक संगठनों और संस्थाओं पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए , जिससे देश की एकता और अखंडता को खतरा हो। इस तरह के सभी आयोजन प्रतिबंधित कर देने चाहिए। भीमा गाँव की हिंसा का सच देश के सामने आना चाहिए। इस तरह की घटनाओं को राजनीतिक आईने से नहीं देखा जाना चाहिए। यह आधुनिक भारत में सभ्य समाज के लिए कलंक है। प्रभुनाथ शुक्ल (हिफी)

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